Saturday, December 30, 2023

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में

उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की

जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों

कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है।


कितने मेरे थे, कितनों का मैं,

पर काल बिंदु से जीव शिला

को युग युग घिसते देख रहा हूँ

कुछ रह जाता, कुछ ले जाता है।


सृजन बिंदु को संचित करता 

मानव मन कब रुक पाता है 

पल एक प्रलय का आता देखो 

कुछ ही रहता, सब ही जाता है। 


सागर तट पर सिकता कण 

की आकृतियों सा जीवन है यह 

कौन यहां का होने आया है 

क्या रहता, क्या खो जाता है? 





Friday, November 10, 2023

संधि काल

अलसाये प्रात में देखो 

प्राची क्या संदेशा लायी। 

शीत रात्रि का मिटा नहीं 

औ' रवि बांटता तरुणाई। 


संधि काल ऐसे ही होते, 

भूत भविष्य मिल रहे जैसे। 

वर्तमान उस पल का कहता, 

परिवर्तन ही जीवन जैसे।  


अभ्युदय एक सिंधु जैसा है, 

नित नित बिंदु भरा करते हैं। 

पल प्रतिपल की थाती ले कर, 

जीवन वृत्त बना करते हैं।



Tuesday, September 12, 2023

चिर प्रकाश

जिसने हारे ह्रदय बिंदु में 

कोई द्वंद्व सजग हो। 

जिसने मानस की वीथी में 

पाये आह्लाद सजल हो। 

जिसके अंतर में बहती हों

करुण पुण्य सलिलायें।


वह विराट जिसका धरती पर 

देन लेन चुकता हो। 

स्वयं सिद्धि में जीता हो, 

स्वयं सिद्ध मरता हो। 


जिसकी वाणी में सत्य लिपट 

गौरव अनुभव करता हो। 

जो कल्याण मन्त्र में झंकृत 

रागों को गाता हो। 


उस से पूछो इस जग में 

नवरस कैसे हम पाएं। 

कैसे जीवन के पक्षों में, 

हम चिर प्रकाश हो जाएँ।



Friday, September 8, 2023

निश्चय और नियति

निश्चिंत रहें। हमने जितना दैव अर्जित किया है, वह हमारे साथ ही रहेगा। शास्त्र कहते हैं कि कर्म किसी बछिया की तरह है जो असंख्य धेनुओं में भी अपनी माता को पहचान लेता है। तो जब तक कर्म का बंधन है, श्रेष्ठ कर्म श्रेयस्कर हैं। और जो बंधन मुक्त हैं, वह तो लीला पुरुषोत्तम के साक्षात स्वरुप हैं।

कर्म के बंधन में आनंद के मार्ग ढूंढना ही मुक्ति के सोपान हैं। निश्चय और नियति का निर्माण करता जीवन बह रहा है। जब बाधाओं को भी हम अपनेपन से सुलझाएंगे, प्रवाह सरल होता जाएगा। बढ़ते रहिये।




देखना

दृश्य जगत को हम सभी देखते हैं। परन्तु क्या हम विचार जगत को देख पाते हैं ? यदि हम विचार जगत को देख पाते हों तो क्या हम काल यात्रा में पुरुष और प्रकृति के तत्वोंसे सृजित अध्यायों को देख पाते हैं। और यदि काल यात्रा भी दिखती हो तो अनंत कितना दिखता है ?

वह कौन सी परिस्थितियां हैं जब हम विचलित होते हैं और दृष्टि के विभिन्न आयाम अवरुद्ध होते जाते हैं। यहां तक कि दृश्यमान जगत भी नहीं दिखता। विचलन की वह अवधि कैसे चेतना के विभिन्न स्तरों को जड़ कर देती है? कभी ऐसे विचलन के बीच क्या हम रुके हैं और हमने पुनः दृष्टि के आयामों का जागरण किया है ?
यदि हम देखना सीख लेंगे तो सब समझ भी जाएंगे।


योजक

अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्‌ ।

अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥

एक योजक मधुमक्खी की तरह होता है। पता नहीं कितने पुष्पों का रस ले कर वह मधु बनाता है। बदले में पुष्पों को नव पल्लवन दे जाता है और संसार को न जाने कितने फल। समाज को योजक ढूंढने चाहिए, उनकी चेष्टा को बल देना चाहिए।
वैसे समाज में योजक लोगों की संख्या कम होती है। अधिकाँश को स्वयं की चिंता से निवृत्ति नहीं मिलती। क्या आपने अपने आस पास ऐसे योजकों को देखा है, जो बिना किसी अपेक्षा के आपको कल्याण के पथ पर अग्रसर कर जाते हैं और पुनः उसी मार्ग पर किसी अगले की खोज में बढ़ जाते हैं। क्या संत भी योजक हैं, या योजक भी संत?


घर लौटना

अपनी जड़ों से कभी कटे हो ? कभी अपने घर से जान बूझ कर कहीं दूर निकल गए हो ? कभी ऐसा लगा है कि जो घर कभी तुम्हारे लिए स्वर्ग था, आज वहीं सपने में भी लौटना नहीं चाहोगे ? वही पर्व - त्यौहार, बंधु - बांधव, रीत - संस्कार जिनके लिए तुम जीते मरते थे, वह अब तुम्हें बेमानी लगते हैं।

ऐसा होता है, अक्सर होता है। भाई से भाई भी कटता है तो बहुत दूर तक एक दूसरे को नहीं देखते। लेकिन कहीं गहरे ह्रदय में, या आत्मा में, इस दूरी की टीस तो लगती ही है। संस्कृतियों की धाराओं से भी ऐसे ही बहुत लोग काट दिए जाते हैं। अपने मूल से अलग, अपनी जड़ों से दूर, उनकी बुद्धि-चेतना में अपने ही मूल से घृणा के विचित्र बीज पल्लवित किये जाते हैं।
एक समय जब वह पहले पहल कटते हैं, तो दुःख, पीड़ा और अवसाद झेलते हैं। फिर न जाने कौन सी प्रायोजित प्रक्रियाओं से वह गुजरते हैं कि वह कठोर हो जाते हैं, स्वप्न में भी मुड़ कर नहीं देखना चाहते। कभी राजनीति, समाज की चिंता, कभी लोक बहिष्कार का भय, कभी प्राणों का भय, कभी वर्तमान और अतीत के जोर से अस्तित्व का संकट। सब जानते हुए भी क्या कभी घर लौटना चाहिए !

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...